हमें हीनता के बाेध से जल्दी बाहर निकलना बहुत जरू री है

    10-Jan-2025
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बात ताे चुभेगी

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काेराेना महामारी ने इतने प्रकार से मानव जाति काे प्रभावित किया है कि गिनना मुश्किल है. अभी भी धीरे-धीरे नुकसान की परतें खुल रही हैं.अब जब एचएमपीवी की चर्चा है, तब काेराेना की भी याद हरी हाे गई है. दर्ज मामलाें काे देखें, ताे 70 कराेड़ से ज्यादा लाेगाें काे काराेना हुआ था और 70 लाख से ज्यादा लाेग हमेशा के लिए दुनिया छाेड़ गए. संसार में आधे से ज्यादा परिवाराें ने तन-मन-धन से जाे आघात झेला है, उसे इतनी जल्दी नजरंदाज नहीं किया जा सकता.काेराेना से न केवल वैश्विक अर्थव्यवस्था और काम-राेजगार, बल्कि कार्यालयाें व कंपनियाें की कार्य-संस्कृति पर भी असर पड़ा. लाॅकडाउन के कारण ‘वर्क फ्राॅम हाेम’ या रिमाेट वर्क की व्यवस्था ने सहकर्मियाें के बीच मेलजाेल की कमी पैदा की है. इससे खुद के प्रति भी लाेगाें के नजरिए में बदलाव आने के साथ, उनके आत्मविश्वास में कमी आई है उन्हें अपनी कार्यक्षमता पर भी संदेह हाेने लगा है.
 
खासकर युवाओं के कामकाज पर इसलिए भी असर पड़ा है, क्योंकि से ठीक हाे जाने के बाद उनमें से अनेक भूलने की समस्या का शिकार हाे गए हैं. 20 से 30 प्रतिशत तक युवा भूलने की बीमारी से ग्रस्त पाए जा रहे हैं. कई युवा तनाव संबंधी राेगाें से भी ग्रासित हैं. कई युवा सूडाे-डिमेंंशिया, जिसमें अल्जाइमर से मिलते-जुलते लक्षण से भी पीड़ित पाए गए हैं. स्पष्ट है, उनकी यह स्वास्थ्य समस्या उनके कामकाज और करियर काे प्रभावित कर रही है.काेविड महामारी के कारण जहां कई लाेगाें काे अपनी नाैकरी से हाथ धाेना पड़ा, वहीं कई लाेगाें काे अपनी नाैकरी बचाने की खातिर अधिक काम करने काे भी विवश हाेना पड़ा, क्योंकि उनके अंदर यह बात घरकर गई कि वे पर्याप्त काम नहीं कर रहे हैं.कई लाेगाें का ताे आत्मविश्वास ही डगमगा गया और वे अपने काैशल और क्षमता पर संदेह करने लगे, इसी मनाेदशा काे इंपाेस्टर सिंड्राेम कहा जाता है.
 
इंपाेस्टर सिंड्राेम शब्द साल 1978 में प्रचलन में आया था. इंपाेस्टर सिंड्राेम के प्रभाव काे कुछ बड़ी विख्यात महिलाओं ने भी खुलकर स्वीकार किया है. शेरिल सैंडबर्ग, मिशेल ओबामा और माया एंजेलाे जैसी बड़ी कामयाब शख्सियताें ने सार्वजनिक रूप से माना है कि वे अपने जीवन में इस कमी से गुजरी है.लगभग एक दशक पहले ही इंटरनेशनल जर्नल ऑफ बेहवियरल साइंसेज में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया था कि दुनिया में 70 प्रतिशत लाेगाें ने कभी न कभी इंपाेस्टर सिंड्राेम का अनुभव किया है.अब अनेक लाेगाें काे यह शिकायत रहने लगी है कि वे पर्याप्त काम नहीं कर पा रहे हैं. दरअसल, कमतरी का एहसास यानी अधिक काम करने पर भी ‘पर्याप्त नहीं कर पाने’ के भय काे काेविड काल ने और हवा दी है. काेराेना महामारी ने हमें अतिनिश्चतता की ओर धकेला, पूरे देश में लाॅकडाउन और स्वास्थ्य आपातकाल जैसे अप्रत्याशित परिदृश्याें ने आशंकाओं काे बढ़ाने का काम किया.
 
ऐसी त्रासद स्थिति और बाधाओं ने हमारी भावनाओं एवं मानसिक सेहत पर गहरा असर डाला.इससे काम के प्रति चिंता बढ़ी और इंपाेस्टर सिंड्राेम भी बढ़ा. सैन फ्रासिस्काे स्थित वर्क मैनेजमेंट प्लेटफाॅर्म के एनुअल एनटीमी ऑफ वर्क इंडे्नस-21 के अनुसार, वर्ष 2020 में 62 प्रतिशत लाेगाें काे इंपाेस्टर सिंड्राेम का एहसास हुआ. इसमें 80 प्रतिशत वे लाेग थे, जिन्हाेने 2020 में ही नई नाैकरी शुरू की थी. समय पर अपने सारे काम दक्षता से पूरा करने के बावजूद अगर व्य्नित काे वह चिंता सताए कि मेरे सहकर्मी मेरे काम काे जाने कैसे आंक रहे हैं, ताे कार्यालय-प्रेरित मनाेवैज्ञानिक तनाव पैदा हाे जाता है, जाे अंतत: इंपाेस्टर की वजह बनता है.गाैर कीजिए, काेराेना के बाद प्रशंसा व आश्वासन में कमी आई है. लाेग एक दूसरे की भावनाओं काे समझने में कमी करने लगे हैं, इससे भी इंपाेस्टर सिंड्राेम काे बढ़ावा मिला है. महामारी ने अनेक लाेगाें के मन में गहरी जड़ वाले ऐसे बुरे संस्कार या भाव काे सामने लाने का काम किया है, जाे पहले दबे हुए थे.
 
ध्यान रखना हाेगा कि काेई युवा एहसास-ए-कमतरी से ताे नहीं जूझ रहा है? कमतरी की भावनाएं मन में बहुत गहरे कुंडली मारकर बैठ जाती हैं और व्य्नित काे दशकाें पीछे ले जाने का काम करती हैं. बाद में करियर में बहुत सफलता मिलने के बाद भी कमतरी की भावना दूर नहीं हाे पाती है और व्य्नित इंपाेस्टर सिंड्राेम में ही फंसा रह जाता है.्रविभिन्न शाेधाें के अनुसार, काेराेना के समय की एक और कमी सवाल पूछने के डर से जुड़ी है. इससे व्य्नित अपने काम के बाेझ या कठिनाइयाें के बारे में खुलकर बताने में असमर्थता महसूस करता है. अत: कार्यालय की संस्कृति में ऐसी ढांचागत प्रक्रिया का विकास किया जाना चाहिए कि व्य्नित बिना अपमानित महसूस किए या बिना डरे संवाद कर सके. कंपनी प्रबंधकाें काे मनाेवैज्ञानिक सुरक्षा का बेहतर माहाैल तैयार करना चाहिए.
 
अव्वल ताे युवाओं काे ध्यान रखना हाेगा कि जैसे ही मन में हीनता या संदेह जागे, तुरंत उसे पहचानना हाेगा. इस भावना काे पहचानते ही मजबूती मिलेगी. खुद काे याद दिलाना हाेगा कि ये भावनाएं सामान्य हैं और इन्हें गंभीरता से नहीं लेना है. खुद से पूछते रहना हाेगा कि मैैं जाे करूंगा, उससे किसे लाभ हाेगा? मैं किस समस्या का समाधान करूंगा? मैं दूसराें की सेवा कैसे करूंगा? ये सवाल आपकाे एहसास कराएंगे कि आपका हाेना मायने रखता है.ध्यान रहे, इंपाेस्टर सिंड्राेम जैसी धाेखेबाज भावना से निपटने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि अपने आपकाे लगातार बेहतर कामाें में लगाए रखिए.काम करने से ही आत्मविश्वास पैदा हाेता है और संदेह के बादल छंटते हैं.विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपाेर्ट के अनुसार, 5.60 कराेड़ यानी 4.5 प्रतिशत भारतीय अवसाद से पीड़ित हैं और अन्य 3.80 कराेड़ यानी 3.5प्रतिशत भारतीय चिंता संबंधी विकाराें से ग्रस्त हैं. ऐसे में,इंपाेस्टर सिंड्राेम की चिंता हमें करनी ही पड़ेगी. -प्रदीप कुमार मुखर्जी