कल्पसूत्र में भगवान महावीर के विस्तृत जीवन का वर्णन होता है

15 Sep 2023 15:09:21
 
kalpatra
 
 
निगड़ी, 14 सितंबर (आज का आनंद न्यूज नेटवर्क)
 
प्रत्येक जैन के दिल में उत्साह है, उल्लास है, उमंग है. क्योंकि आज से महिमावंत कल्पसूत्र का वाचन प्रारंभ होने वाला है. देवाधिदेव परम तीर्थपति आसन्न उपकारी भगवान परमात्मा की पट्टधर परंपरा के वाहक पंचम गणधर सुधर्मास्वामी की पाट परंपरा में आए चौदह पूर्वधर महर्षि श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने नौवें प्रत्याख्यान प्रवाह नाम के पूर्व में से उद्धृत कर दशाश्रुत स्कंध के आठवें अध्यपन के रुप में महिमावंत कल्पसूत्र ग्रंथ की रचना की है. पर्वाधिराज महापर्व के इन पवित्र दिनों में इसी कल्पसूत्र ग्रंथ का प्रवचन में वाचन होता है. प्रतिदिन दो-दो प्रवचनों में इस ग्रंथ का स्वाध्याय होता है. इस कल्पसूत्र को ग्रंथ शिरोमणि भी कहते है.
 
भगवान महावीर के निर्वाण के 980 वर्ष बाद आनंदपुर नगर में पुत्र मरण से शोकातुर बने ध्रुवसेन राजा की समाधि के लिए सर्व प्रथम बार चतुर्विध संघ के सामने इस कल्पसूत्र ग्रंथ का वाचन प्रारंभ हुआ था, तब से प्रतिवर्ष पर्वाधिराज पर्युषण दरम्यान सभा समक्ष इस ग्रंथ का वाचन होता है. कल्प अर्थात्‌‍ आचार इस ग्रंथ के प्रारंभ में साधु के आचारों का वर्णन होने से इसका नाम कल्पसूत्र है. इस अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर हुए है. सभी तीर्थंकरों के द्वारा मोक्ष मार्ग का ही निर्देश होने पर भी उनमें थोडी आचार भिन्नता देखी जाती है. ऋषभदेव प्रभु के शासन में पैदा हुए अधिकांश जीव ऋजु और जड कहलाते है.
 
उनके लिए धर्म का बोध कठिन है, परंतु पालन सुकर है. 22 तीर्थंकरों के शासन में पैदा हुए जीव ऋजु और प्राज्ञ कहलाते है, अतः उनके लिए धर्म का बोध और पालन भी सरल है. भगवान महावीर के शासन में पैदा हुए अधिकांश जीव वक्र व जड होने से उनके लिए धर्म का बोध कठिन है और पालन भी दुष्कर है. इस कल्पसूत्र में भगवान महावीर के विस्तृत जीवन का वर्णन है. यह कल्पसूत्र साक्षात्‌‍ कल्पवृक्ष समान है इस सूत्र में अनानुपूर्वी से कथन होने से सर्वप्रथम महावीर प्रभु का चरित्र बीज समान हैं, पोर्शनाथ का चरित्र अंकुर समान है, नेमिनाथ का चरित्र स्कंध समान है, ऋषभदेव का चरित्र डाली के समान हैं, स्थविरावली पुष्प के समान है, सामाचारी का ज्ञान सुगंध समान है और मोक्ष की प्राप्ति फल समान है. पर्युषण महापर्व के चौथे दिन में कल्पसूत्र के दो व्याख्यानों का स्वाध्याय (वाचन) होता है. महावीर प्रभु की आत्मा ने मरीचि और त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में भयंकर पाप किए थे, जिसके फलस्वरुप उन्हें दो बार नरक में भी जाना पड़ा था.
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