जीवन में तरक्की के लिये कड़ी मेहनत का कोई पर्याय नहीं है

16 Jan 2025 14:55:42
 
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अग्रवाल समाज के लोग हजारों साल पहले अग्रोहा में थे. वहां से वे अग्रोहा के आसपास हरियाणा, राजस्थान और उत्तर-प्रदेश में जाकर बस गये. उसके बाद वे पूरे भारत के शहरों में फैल गये और अब तो चौथी पीढ़ी के युवा दुनिया के अनेक देशों में अपनी अच्छी ‌‘साख' बना चुके हैं. अग्रवाल अच्छी तरह जानते हैं कि कड़ी मेहनत का कोई पर्याय नहीं होता. कई बार लोग कहते हैं कि पहले के समय संघर्ष कम था, लेकिन ऐसा कभी नहीं था. उस वक्त की अपनी समस्याएं थीं और अपनी अच्छाइयां थीं. शिकायत करने वाले हर युग में रहे हैं. उतनी ही तकलीफें, संघर्ष व समस्याएं या अच्छी-बुरी बातें हमारे दादा-परदादा के समय भी अवश्य रही होंगी. आज भी रूप बदलकर वही समस्याएं आती रहती हैं. टेक्नोलॉजी भले ही बदल जाये, पर समय एक-सा ही होता है. सही मायनों में हर व्यक्ति को अनेक तकलीफें और संघर्षों से गुजरना ही पड़ता है.

गणूशेठ ने बताया, “1991 की 5 जुलाई की रात को एक भीषण रोड एक्सीडेंट हुआ था. उसे हम हरियाणा वाले कभी नहीं भूल सकते. करीब 30-32 साल पहले हरियाणा के अग्रवालों की शादी में दूल्हा- दुल्हन के फेरे रात को हुआ करते थे. पुणे से देहूरोड एक बारात गई थी. रात को फेरे और विदाई होने के बाद एक कार में 6 लोग बैठे थे. कार देहूरोड से पुणे जा रही थी. निगड़ी के पास उन्हें एक ट्रक ने रांग साइड से आकर टक्कर मारी और कार को दूर तक घसीटते हुए ले गया. इसमें दूल्हा-संजय, दुल्हन - अनिता, दूल्हे के दो जीजाजी याने श्रवण वेदप्रकाश डकाडलेवाले, विनोद सत्यप्रकाश बेगा गांववाले की जगह पर ही मौत हो गई थी. दूल्हे के मामा का लड़का सुनिल जगदीश, माजरेवाले, की भी मौत हो गई थी. इसमें कलस वाले बनारसीदास का लड़का अशोक बच गया था. वो 6 महीने कोमा में था.”
  पुणे में तीन राज्यों के अग्रवाल बसे हैं. सबसे पहले करीब 150 साल पहले राजस्थान के अग्रवाल आये थे. उसके बाद आज से करीब 125 साल पहले हरियाणा के अग्रवाल आये थे. फिर आज से करीब 80 साल पहले आगरा-मथुरा यानी उत्तर प्रदेश के अग्रवाल आये थे. आज पुणे में तीनों राज्यों के कुल मिलाकर 35 से 40 हजार अग्रवाल बसे हैं. पहली पीढ़ी के लोगों ने अपने परिवार के बच्चों को सेटल करने के लिये रात-दिन कड़ी मेहनत की. कुछ साल बाद उनके साथ दूसरी पीढ़ी भी काम करने लगी थी.
 अग्रवालों की दूसरी, तीसरी, चौथी पीढ़ी पुणे में ही पैदा हुई. उनकी स्कूल, कॉलेज की पढ़ाई और फिर शादी भी यहीं हुई. आज ये सभी बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. आज दूसरी-तीसरी पीढ़ी में व्यापार के अलावा, डॉक्टर, वकील, प्रोफेसर, टीचर, कलाकार, बिल्डर तथा इण्डस्ट्री आदि हर क्षेत्र में काम कर रहे हैं. ये बात अलग है कि आज के दौर में सारे प्रोफेशन व्यापार जैसे ही हो गये हैं.
 
पुणे के मार्केटयार्ड हरियाणा के अग्रवालों में गणूशेठ उर्फ भागचंद ‌‘मित्तल कंपनी' के मालिक हैं. वे हरियाणा के ‌‘करहंस' गांव के हैं. पुणे में उन्हें सब कोरेगांव वाले कहते हैं. हम करीब 125 साल पहले आये थे. दै. ‌‘आज का आनंद' से बातचीत में गणूशेठ ने बताया,“मैं कोरेगांव में 7-8 साल का था तभी से अपने पिता और भाई के साथ किराना दुकान पर बैठने लगा था. कोरेगांव में हर गुरुवार को हप्ते का बाजार भरता था. मेरे पिता दुकान का माल लेकर बाजार जाते थे. तब मैं भी उनके साथ जाता था.”

 हरियाणा का गांव छोड़कर पुणे में आई पहली पीढ़ी ने रात-दिन कड़ी मेहनत की, जिसे आर्थिक तौर पर संपन्नता कहते हैं वो पहली पीढ़ी ने अपनी मेहनत से कमाई थी. पहली पीढ़ी ने परिवार का पोषण या आर्थिक तौर पर रात-दिन संघर्ष करके परिवार को संपन्न बनाया. इसी के कारण दूसरी-तीसरी-चौथी पीढ़ी ने अपनी मेहनत से पैसा भी कमाया और नाम भी कमाया.
 
करीब सौ, सवा-सौ साल पहले हरियाणा के करनाल जिले में हर दो कोस पर एक गांव होता था. करनाल जिले में करीब 52 गांव थे, जहां के अग्रवाल अब पुणे में बसे हुए हैं. हमारे गांव का नाम ‌‘करहंस' है. हमारे कुनबे के बड़े बुजुर्ग बताते थे कि हम मूल रूप से ‌‘जुरासी गांव' के थे. कुछ साल बाद हमारा कुणबा जुरासी के पास ‌‘करहंस' गांव जाकर बस गया था. पहले हमारा कुनबा पैसे-पानी के हिसाब से बहुत अच्छा था, लेकिन बाद में ऐसा कुछ हुआ कि अचानक हमारा परिवार गरीब हो गया. दो वक्त के खाने का भी ‌‘टोटा' पड़ गया.
 
तब हमारे कुनबे के 2-3 लोग काम-धंधे की तलाश मेें पुणे में आ गये. यहां खड़की में जुरासी गांव के गोपीसेठ का बड़ा नाम था. कहते हैं वे आधी खड़की के मालिक थे. कालू-दगडू उनके दो बेटे थे. उन्हीं की पहचान से मेरे पिता बनवारीलाल खड़की में आये थे.
 
उनके साथ जयलाल और मेरे ताऊ का बेटा नानूराम भी था. आज हमें पुणे में सब कोरेगांव वाले ही कहते हैं. पुणे में नानापेठ, मार्केटयार्ड, लुल्लानगर, चिंचवड़, पिंपरी सब जगह हमारे कुनबे के लोग रहते हैं. 125 साल पहले हरियाणा के ‌‘करहंस' गांव से सिर्फ तीन लोग यहां आये थे. पहली पीढ़ी के जो भी यहां आये थे, उनमें से आज कोई नहीं रहा. आज उनकी दूसरी-तीसरी-चौथी पीढ़ी बहुत अच्छे बड़े-बड़े काम कर रही है.
 
पहले हरियाणा के अग्रवाल, चाहे वो किसी भी गांव से आया हो, खड़की, येरवड़ा, देहूरोड में आकर बस जाता था. उस वक्त पुणे सिटी में हरियाणा के अग्रवाल बहुत कम थे. सिर्फ ताजपर के विशंभर का एक कुनबा था, उन्हें बंगले वाले कहते थे. दूसरी पीढ़ी के सब लोगों की शादी खड़की, येरवड़ा, देहूरोड में ही होती थी. उस वक्त के मां-बाप अपने बच्चों की शादी हरियाणवियों में ही करना पसंद करते थे. लेकिन, अब राजस्थानी, यूपी या मारवाड़ी में भी रिश्ते होने लगे हैं.
 
करनाल जिले के आसपास वाले गांवों के नाम
 
1. सालवण गांव, 2. माछरली गांव, 3. करहंस गांव, 4. जुरासी गांव, 5. चुलकाणा गांव, 6. ताजपर गांव, 7. बला माजरा गांव, 8. मलकपुर गांव, 9. कछाणा गांव, 10. भाणा गांव, 11. कोडा, पाई, पुंडरी गांव, 12. पाड्डा गांव, 13. बबैल गांव, 14. जुलमाणा गांव, 15.बापोली गांव, 16. पुरलक गांव, 17. मतलोडा गांव, 18. फरीदपुर गांव, 19. बालूवाले, 20. लुहारी वाले, 21. उमेदगढ़ वाले, 22. ननेडा वाले, 23. मनाणा वाले, 24. गढ़वाले, 25. धनसोली वाले, 26. कुराड वाले, 27. राडा वाले, 28. पुरपाछी वाले, 29. भालसी वाले, 30. बाहरी वाले, 31. सिटोंडी (गोयल निवास वाले), 32. डिकाडला, 33. नंगला, 34. इसुपर, 35. टेवला, 36. कुराना गांव, 37. ललेडी, 38. आसन, 39. खेवडा, 40. छोटा उरलाना, 41. बेगा, 42. बाकल, 43. नारे वाले, 44. सोनपत, 45. पट्टी कल्याण, 46. सखाना, 47. संभालका, 48. सनपेडा, 49. नीलोठी, 50. कसरटी गांव और 51. कुमासपुर“उस वक्त पहली पीढ़ी का बाप ये सोचता था कि उसका बेटा बड़ा होकर कुछ खास नहीं कर पायेगा, लेकिन उसके देखते ही देखते बेटे ने काफी कुछ किया, पैसा कमाया, बिल्डिंग भी बनाई और नाम भी कमाया. लेकिन दूसरी पीढ़ी के सभी लोगों का वैसा नसीब नहीं था. बहुत मेहनत करके कुछ बहुत आगे बढ़ गये, पर कुछ ऐसे भी हैं जो आज तक संघर्ष कर रहे हैं, आगे नहीं बढ़ पाए. शायद इसी को नसीब कहते हैं.”“शुरुआत में ये सभी छोटे से किराना दुकानदार थे. किसी के पास कोई पूंजी नहीं थी. हरियाणा के व्यापारी किसी न किसी की पहचान से पुणे आये थे. यहां उन्होंने बहुत कड़ी मेहनत की. स्थानीय लोगों से संबंध बनाये. उस वक्त अग्रवालों की पहली पीढ़ी जो पुणे में आई, उनको मराठी भी नहीं आती थी. लेकिन रात-दिन कड़ी मेहनत से उन्होंने धीरे-धीरे अपनी जगह बना ली थी.”  
 
 
  उस वक्त कोरेगांव में अग्रवाल के तीन घर थे. एक हमारा यानी मेरे पिता बनवारीलाल का, दूसरा मेरे चाचा चंदगीराम का और तीसरा मेरी बुआ का बेटा भगतराम का.
 
हरियाणा से जो पहली पीढ़ी के अग्रवाल आये थे, वो हरियाणा के करनाल जिले के करीब 52 गांवों से आये थे. सभी दो-तीन लोगों के गुट में अपनी-अपनी पहचान से पुणे में आये थे. कोरेगांव वालों की दूसरी पीढ़ी के गणूशेठ उर्फ भागचंद ने अपनी मुलाकात में बताया, बनवारीलाल मेरे पिता थे. वे तीन भाई थे, जयलाल, करोड़ीमल और बनवारी. इनमें करोड़ीमल की आखिर तक शादी नहीं हुई थी. कहते हैं उस जमाने में हरियाणा के हर घर में एक भाई कुंवारा रह जाता था, क्योंकि उस वक्त लड़कियों की कमी होती थी. मेरे दादा फूलचंद हरियाणा में करनाल जिले के ‌‘करहंस' गांव में रहते थे. अब तो ‌‘करहंस' गांव पानीपत जिले में है. तहसील सम्हालका है, जो हमारे गांव से दो मील दूर है. हमारा परिवार पुणे के कोरेगांव में आने के बाद मैं 2-3 बार हरियाणा में ‌‘करहंस' गांव गया हूं. अब वहां कोई अग्रवाल नहीं रहता. सबसे पहले मेरे पिता बनवारीलाल, जयलाल और नानूराम जो मेरे ताऊ का लड़का था, ये तीनों रेल में बैठकर ‌‘करहंस' गांव से पुणे के खड़की में आये थे. खड़की में जुरासी गांव के गोपीशेठ का बड़ा नाम था. उनके दो लड़के कालू और दगडू से मेरे पिता की पहचान थी, लेकिन जब खड़की में काम धंधा नहीं जमा, तो वे किसी की पहचान से लातूर चले गये. लेकिन वहां भी काम नहीं जमा तो वे वापस खड़की आ गये.
 
एक दिन उन्हें खड़की के नजदीक चाकण गांव में एक पहचान वाला मिला. उसने कहा, तुम भीमा कोरेगांव चले जाओ. इसके बाद वे तीनों यानी मेरे पिता बनवारीलाल, जयलाल और नानूराम भीमा कोरेगांव में आ गये. यहां इन्होंने छोटी सी किराना दुकान लगाई. फिर धीरे-धारे वहां उनका काम जम गया.
 
गणूसेठ ने आगे कहा, ‌‘हम सात बहन-भाई थे. सब कोरेगांव में ही पैदा हुए थे. हमारी बहन चंद्रोदेवी सबसे बड़ी थीं. फिर हम छह भाइयों में सबसे बड़े हुकुमचंद, दो नंबर बबनलाल, तीन नंबर पोपटलाल, चार नंबर मैं यानी भागचंद, पांच नंबर सुरेश और सबसे छोटा लखमीचंद.
 
' मेरी बहन चंद्रोदेवी, भाई हुकुमचंद, बबनलाल और सुरेश अब इस दुनिया में नहीं हैं. अब हम तीन भाई हैं जिनमें से पोपटलाल अब भी भीमा-कोरेगांव में ही रहते हैं और मैं तथा मेरा सबसे छोटा भाई लखमीचंद पुणे मार्केटयार्ड में होलसेल की दुकान चला रहे हैं.
 
मैं सातवीं क्लास तक कोरेगांव में ही पढ़ा था. उसके आगे हाईस्कूल के लिये मुझे पुणे के रास्ता पेठ में राजा धनराज गिरजी हाईस्कूल में एडमिशन लेना पड़ा. वहां मैं जब 10वीं में था, मेरी शादी हो गई, तो मैंने स्कूल छोड़ दिया. मैं 17 साल का था, मेरी पत्नी शकुंतला तब 15 साल की थी. भीमा-कोरेगांव से हम बारात लेकर खड़की गये थे. वहां हरियाणा के बापोली गांव के प्यारेलाल, जोहरीमल और रामचंद्र तीन भाई थे. मेरी शादी रामंचद्र की लड़की से हुई थी. उस वक्त इन्सानियत बहुत थी. खाट पर भी बारात को बिठा लेते थे. 1968 में मेरी शादी हुई तब सोना 150 रुपये तोला था, वो भी 12 ग्राम का. हमारे देश में महंगाई कहां से कहां पहुंच गई यह समझनेवाली बात है. अब तो एक तोला 10 ग्राम का है और 78,000 रु. तोला रेट हो गया है. मेरी होलसेल की दुकान 1962-63 में थी, तब 90 रु. में 100 किलो बोरी अनाज बिकता था. आज 4000 रु. में 100 किलो अनाज है.
 
उस वक्त 100 किलो ज्वारी-बाजरी की बोरी सिर्फ 110 रु. में मिलती थी. उस वक्त सभी चीजें बहुत सस्ती थीं. लोगों के पास पैसा ही नहीं था. हम 60 रु. में 100 किलो बाजरी बेचते थे. आज वही 50 रु. की एक किलो बाजरी है. 1977 में हमारी दुकान में 10,000 पोते बाजरी-ज्वारी के होते थे. उस वक्त पूरे महाराष्ट्र में हमारा माल जाता था. लोणंद, फलटण, बारामती, खेड़, मंचर सब जगह से ग्राहक आते थे.
 
पुणे में जहां-जहां भी हरियाणा वाले अग्रवालों की दुकानें थीं. सबके यहां हमारी दुकान से ही माल जाता था. मेरी दुकान में गेहॅू, चावल यह माल हरियाणा से ही आता था.
 
1961 में पुणे में पानशेत-खड़कवासला बांध टूटने से बहुत बड़ी बाढ़ आई थी. यह 12 जुलाई 1961 की बात है. उसके बाद 1962 में नानापेठ और भवानीपेठ में हमारी अनाज की होलसेल की दो दुकानें थीं. एक दुकान का नाम बबनलाल बनवारीलाल कोरेगांववाले था और दूसरी दुकान का नाम ‌‘वसत कंपनी' था. जिसमें नारियल, पोहे और मुरमुरे आदि बिकते थे.
 
बबन बनवारीलाल फर्म में शक्कर का काम था, लेकिन फिर सरकार ने शक्कर पर बंदी लगा दी थी. इसलिये हमने वहां अनाज का काम शुरू कर दिया था. फिर 1973 में हमने ‌‘मित्तल आणि कंपनी' नई फर्म शुरू कर दी. इसमें मैं और मेरा भतीजा सत्यनारायण दीपचंद, हम दोनों पार्टनर थे. 1986 में हमारी पार्टनरशिप टूट गई.
 
पहले लोग बारहों महीने बाजरी खाते थे. अब तो सब गेहूं खाने लगे हैं. जब हम कोरेगांव में थे. तब हमारे पास तीन भैंसें थीं. परिवार को घर का दूध मिलता था. हम दूध या दही कभी बेचते नहीं थे.
 
मेरे ताऊ जयलाल के तीन बेटे थे. रामस्वरूप, नानूराम और दीपचंद, इनमें आज पुणे में चिंचवड़ के उद्योगपति प्रेमचंद मित्तल के पिताजी रामस्वरूप स्कूल में मास्टर थे. उनकी जान-पहचान ज्यादा थी. उन्होंने अपने बेटे प्रेमचंद को शहर के होस्टल में रखकर पढ़ाया और उसे इंजीनियर बनाया. आज इनके तीन बेटे अरुण, अनिल व सुनिल हैं. ये सभी कई इण्डस्ट्री के मालिक हैं. ‌‘करहंस' गांव के प्रेमचंद का परिवार ही आज हर बात में हम सबसे आगे है. पुणे में हरियाणा वालों के कई बड़े कुनबे हैं. जुरासी और सालवण वालों का ज्यादा बड़ा कुनबा है.
 
इसके अलावा चुलकाणा वाले, माजरे वाले, माछरली वालों के अलावा मतलोडा और ‌‘करहंस' वालों का भी बड़ा कुनबा है. उस जमाने में हर 2-3 कोस पर एक गांव होता था. बोली और पानी भी बदल जाता था. गांव में सभी गरीब थे. घर का खर्चा चलाना मुश्किल था. कुछ लोग खेती करते थे. कुछ जो मंडी में बड़ा काम करते थे, उनका चांदी के सट्टे में बड़ा नुकसान हो गया था. जब कोई काम धंधा नहीं रहा था, तो किसी न किसी की पहचान से वे पुणे में आकर बस गये.
 
यह वक्त-वक्त की बात है हरियाणा के अग्रवालों ने जो कड़ी मेहनत की उसके लिये ‌‘तकलीफ' भी बहुत छोटा शब्द है. हरियाणा के लोग बहुत मेहनती और नई जगह के लोगों में जल्दी घुल-मिल जाते थे. हरियाणा से शुरू में जो आये थे उन्हें मराठी नहीं आती थी. लेकिन उनकी दूसरी पीढ़ी मराठी में एक्सपर्ट हो गई. अब तो हर घर में मराठी, हिंदी और इंग्लिश चलती है. शादी की पत्रिका पहले हिंदी में छपती थी, पर अब तो इंग्लिश में ही छपती हैं. हरियाणा वाले अक्सर कहते हैं कि जिसके दाने पहले खतम हो गये, वो पहले आ गये, जिसके बाद में खतम हो गये, वो बाद में आ गये. लेकिन, यह तो पक्का है कि सबके सब गरीबी में ही यहां आये थे. उन्होंने या उनकी अगली पीढ़ी ने जो भी कमाया सब यहीं पर कमाया है. पुणे में इन हरियाणवियों की दूसरी पीढ़ी में आज के समाज के लिये आस्था और प्रेम है. वे हर किसी के दुख-सुख में शामिल होते हैं और अपने भाइयों को मदद करने या समझाने की कोशिश भी करते हैं. लेकिन, हर किसी का स्वभाव अलग होने के कारण सामाजिक स्तर पर वो नहीं हो पाता, जो होना चाहिये था.
 
पहली पीढ़ी के सब लोगों ने किराना दुकान लगाई. सुबह 5 बजे से रात 11 बजे तक दुकानदारी की. धीरे-धीरे परिवार को आर्थिक तौर पर खड़ा करने की कोशिश की. दूसरी पीढ़ी के पास बाप की गुडविल थी, थोड़ा-बहुत पैसा भी था और दूसरी पीढ़ी में नये ढंग से बिजनेस करने का हौसला भी था, इसलिये उन्होंने भरपूर पैसा और नाम भी कमाया.
 
अब किसी भी हरियाणवी के गांव में उनके कुनबे का कोई नहीं रहा. सबके सब किसी न किसी शहर में जाकर बस गये हैं. तीसरी पीढ़ी के कुछ लोग तो इंग्लैण्ड, अमेरिका में जाकर बस गये हैं. वे सब तो हरियाणवी भाषा को भी भूल गये हैं. पुणे में दूसरी पीढ़ी के लोग तो पति-पत्नी आज भी हरियाणवी में बात करते हैं, लेकिन तीसरी पीढ़ी हिंदी या इंग्लिश में ही बोलती है. तीसरी पीढ़ी के अधिकतर बच्चे अब विदेश में जाकर सेटल होना चाहते हैं. इंटरनेट के जमाने में पैसे के अलावा अच्छी एजुकेशन होने से भी अग्रवालों की तीसरी पीढ़ी अब यूरोप के बारे में ज्यादा सोचने लगी है. वे घर में भी अंग्रेजी फिल्म या सीरियल देखते हैं. दोस्तों के साथ अंग्रेजी में बातचीत करते हैं. बिजनेस का आदान-प्रदान भी अंग्रेजी में करते हैं. कुछ पैसे वालों की देखा-देखी आजकल हरियाणा के भाइयों में दिखावे की होड़ सी लग गई है. जो समाज के लिये ठीक नहीं है. तीसरी-चौथी पीढ़ी में सामाजिक संस्कार नहीं के बराबर हैं. हर अमीर परिवार वालों के कुछ गरीब रिश्तेदार हैं, लेकिन कितना भी गरीब रिश्तेदार हो, वो अपने अमीर भाई के पास पैसों की मदद मांगने नहीं जाता. जबकि पहली पीढ़ी के लोग तो किसी भी अग्रवाल भाई के पास मदद मांगने चला जाता था. क्योंकि उस वक्त आपसी प्यार बहुत था. ईगो नाम की चीज किसी में नहीं थी. आज समाज में जवान लड़के-लड़कियों की शादी, सबसे बड़ी समस्या है? 27, 28, 29, 30 बरस के बच्चों की शादी नहीं हो रही. पहले हमारे समाज में ‌‘लव मैरिज' को बुरा मानते थे, अब तो कुछ परिवार ने मजबूरी में इसको भी मान लिया है.
 
फिर भी बच्चों की शादी नहीं हो रही, यह हर परिवार के मां-बाप या बड़ों के लिये चिंता की बात है. मेरे भाई हुकुमचंद के एक लड़के सतीश की आज भी कोरेगांव में किराना दुकान है. मेरा कोरेगांव में जन्म हुआ, मेरे भाई भी पुणे में ही जन्मे. मेरे पिता बनवारी लाल कुंवारे ही पुणे में आये थे, बाद में हरियाणा जाकर शादी की. हरियाणा में इथवाला गांव की मेरी मां थीं. मेरे ताऊ रामस्वरूप का लड़का बालकिसन था.
 
उनकी मां गुजरने के बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली थी. मामन. अणीदेवी, प्रेमचंद और चिमनलाल ये दूसरी मां के बेटे हैं. मैंने मार्केटयार्ड में 1986 में ‌‘मित्तल कंपनी' नाम से दुकान शूरु की, यह मित्तल कंपनी आज भी चल रही है. दीपचंद को 4 बच्चे हैं. सतनारायण, राजाराम, प्रकाश और एक बहन शांति, स्व. रामलाल की पत्नी, जो सुरेंद्र और बलवीर की मां हैं. पहले होलसेल का काम करने वाले अग्रवालों में उस वक्त कोरेगांव वाले ही ब‹डे व्यापारी थे?
 
आज के दौर में ‌‘करहंस' वालों में प्रेमचंद सबसे ज्यादा पढ़ा लिखा इंजीनियर है. आज ‌‘करहंस' वालों में सबसे अमीर भी प्रेमचंद ही है. आज सबसे बड़े मेरे भाई, पोपटलाल की उम्र 84, प्रेमचंद की उम्र 78, चिमनलाल की उम्र 76. और मेरी 74 उम्र है. मेरा जन्म का नाम भागचंद है. लेकिन गणेश चतुर्थी को जन्म होने के कारण मेरा नाम भागचंद की जगह गणेश हो गया. अब लोग मुझे गणूशेठ ही कहते हैं. कोरेगांव वालों की लेडीज में, जो आज हैं.
 
1. श्रीमती बिश्नीदेवी बबनलाल (उम्र 80)
2. सौ. ओमपति देवी पोपटलाल (उम्र 80)
3. श्रीमती कमलादेवी रामकिसन (उम्र 75)
 
मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि जहां तक हो सके हम सबको सादगी से रहना चाहिये और अपना खर्च संभालकर करना चाहिये. हर एक की जिंदगी में अच्छे बुरे दिन तो आते ही रहते हैं. सब दिन एक समान किसी के नहीं होते.
 
 संक्षिप्त में हरियाणा
भारत 1947 में आजाद हुआ. उस वक्त हरियाणा- पंजाब प्रांत का एक हिस्सा था. इसके 19 साल बाद 1 नवंबर 1966 के दिन हरियाणा की स्थापना हुई. यानी आज हरियाणा की स्थापना को 58 साल हो चुके हैं. कहते है, यहां हरि का आना हुआ है, यहां कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत का युद्ध हुआ है. यहीं श्रीकृष्ण भगवान ने गीता का उपदेश दिया है. इसीलिये हरि + आना = हरियाणा, यह नाम पड़ा. आज हरियाणा में 6841 गांव हैं. हरियाणा की स्थापना हुई तब राज्य में सिर्फ 7 जिले थे. रोहतक, जींद, हिसार, महेन्द्रगढ़, गुड़गांव, करनाल और अंबाला. फिर 2017 में इन जिलों का पुनर्गठन हुआ और 7 पुराने जिलों के अलावा 15 नए जिले जोड़ दिये गये. इससे अब हरियाणा राज्य में 22 जिले और 93 तहसील हैं. हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ है. साल 2015-16 में हरियाणा में एक करोड़ 40 लाख टन गेहूं की पैदाइश हुई. 50 लाख टन से ज्यादा चावल, 80 लाख टन गन्ना, 10 लाख टन से ज्यादा कपास और 9 लाख टन सरसों का बीज यानी तिलहन का उत्पादन हुआ था. हरियाणा को दूध के लिये खास तौर पर जाना जाता है. हरियाणा राज्य में पशुओं की कई नस्लें पाई जाती हैं. इनमें मुर्रा भैंस, हरियाणवी, मेवाती, साहिवाल और नीलि-रवि इत्यादी ज्यादा फेमस हैं. हरियाणा भारत के क्षेत्रफल का करीब एक प्रतिशत है और भारत की आबादी का दो प्रतिशत है. हरियाणा आज भारत का एक अग्रणी राज्य बन गया है. हरियाणा दूध और खाद्यान उत्पादन में पूरे देश में एक नंबर का राज्य है. यह आज देश के अमीर राज्यों में से एक है और प्रति व्यक्ति इन्कम के आधार पर यह भारत का दूसरा सबसे धनी राज्य है. भारत के सबसे ज्यादा ग्रामीण करोड़पति भी यहीं है. हरियाणा कारों, टू-व्हीलर प्रॉडक्शन और ट्रैक्टरों के निर्माण में सबसे आगे है. हरियाणा के करीब 90 % लोग हरियाणावी हिंदी भाषा ही बोलते हैं. हमारी हिंदी फिल्में और टीवी सीरियल में बहुत से एक्टर हरियाणवी टोन में बोलते हैं. जैमिनी हरियाणवी और सुरेद्र शर्मा जैसे बड़े कवियों ने हरियाणवी भाषा को सारी दुनिया में लोकप्रिय बना दिया है.
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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